कोरोना महामारी के कहर को झेल रहे वित्तीय वर्ष के आठ महीने अभी बाकी हैं और मनरेगा का करीब आधा बजट खत्म हो गया है. इन दिनों देश में स्वास्थ्य के लिहाज से हालात खराब हैं. उतनी ही खराब हालत अर्थव्यवस्था की भी है. इस परिस्थिति में मनरेगा ग्रामीण भारत की जीवनरेखा साबित हुई है.
घर लौटे प्रवासी मजदूरों को सरकार की मनरेगा ने कितनी बड़ी राहत दी इसका अंदाजा केवल इसी बात से लगाया जा सकता है कि अप्रैल से लेकर अब तक तकरीबन 38 लाख से ज्यादा लोगों ने अपने जॉबकार्ड बनवाए हैं. इनमें सबसे अधिक 14.68 लाख जॉबकार्ड उत्तरप्रदेश में बने हैं, क्योंकि वहां सबसे अधिक प्रवासी मजदूर लौटे हैं. सवा लाख परिवारों ने केवल चार महीनों में ही अपने सौ दिनों का काम पूरा कर लिया है, यही नहीं इसी अवधि में अनुमानित श्रम बजट की तुलना में 11 प्रतिशत ज्यादा मजदूर दिवस का रोजगार उत्पन्न किया है. इन आंकड़ों के बाद इस बात पर कोई सवाल नहीं रह जाता है कि यह योजना आखिर कितनी प्रभावी है या नहीं!
दशकों से ग्रामीण भारत में बेरोजगारी के दानवी सवालों का जवाब लेकर 2005 में मनरेगा देश में अवतरित हुई थी. यह केवल योजना भर नहीं थी, सरकार ने इसे सौ दिनों के रोजगार की गारंटी सुनिश्चित करने का कानूनी अधिकार दिया और यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसके खिलाफ मुआवजा दिए जाने का प्रावधान भी रखा.इस कानून में पहली बार स्थानीय स्तर पर लोगों को 15 दिनों के अंदर काम मांगने का अधिकार है, ऐसा नहीं होने पर काम मांगने वाले को बेरोजगारी भत्ता दिया जाने का प्रावधान है और दूसरा काम होने के 7 से 15 दिन के अंदर मजदूरी का भुगतान करने का प्रावधान है यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो मजदूरी के भुगतान में देरी होने पर भी मुआवजा पाने की हकदारी है.
यह यूपीए सरकार का रोजगार उपलब्ध करवाने की दिशा में ऐसा क्रांतिकारी कदम था जो ग्रामीण स्तर पर बुनियादी संरचनाओं के लिए भी महत्वपूर्ण था. आज इस योजना में आधे से ज्यादा ग्रामीण भारत हितग्राही है. यानी तकरीबन 55 प्रतिशत ग्रामीण भारतीय परिवारों के नाम इस योजना में दर्ज हैं.
संख्या में देखा जाए तो भारत में 13.87 करोड़ जॉब कार्ड प्रचलन में है, इन कार्डों में तकरीबन 27 करोड़ लोगों के नाम दर्ज हैं. कार्ड बनवा भर लेना काफी नहीं होता, देखा यह भी जाना चाहिए कि क्या वास्तव में इस योजना में काम करने में लोग दिलचस्पी लेते हैं.
जी हां, तकरीबन 56 फीसदी जॉबकार्ड धारी परिवारों ने पिछले तीन सालों में कभी न कभी इस योजना में काम किया हैं यानी तकरीबन 7.81 करोड़ परिवारों ने इसमें पिछले तीन सालों में काम किया है. इस लिहाज से यह दुनिया की सबसे बड़ी योजनाओं में शुमार है. बापू होते तो और कुछ तो नहीं अपने नाम ‘महात्मा गांधी’ को इस योजना के साथ देखकर जरूर खुश होते, क्योंकि उनकी सोच के केन्द्र में भी यही ग्रामीण भारत सबसे पहले होता था, इसलिए वह ग्राम स्वराज्य के विमर्श को हमेशा केन्द्र में रखते थे. यूपीए के समय बनी इस योजना को एनडीए सरकार की शुरुआत में चलाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. इस बात की तस्दीक संसद का वह बयान करता है जिसमें इसे यूपीए सरकार की ‘असफलताओं का स्मारक’ घोषित किया गया था. इस बयान के बाद ऐसा भी लगा कि सरकार इस योजना को बंद करके कोई दूसरी बड़ी योजना लाएगी जैसे कि गरीबों को आवास देने की योजना को सरकार ने नए रंग-रूप के साथ लांच किया, लेकिन कानूनी प्रावधान होने के चलते इसको बंद करके दोबारा शुरू किया जाना आसान नहीं था.एनडीए सरकार ने भी मनरेगा के बजट में तकरीबन हर साल बढ़ोत्तरी की, संकट के समय यही योजना बड़े काम आ रही है. मनरेगा कोई खैरात भी नहीं है. इसमें मजदूर अपना पसीना बहाता है, बदले में मजदूरी पाता है.
मनरेगा में जो काम होते हैं वह सरकार के मनरेगा पोर्टल पर कुछ यूं दर्ज हैं कि 31 मार्च 2020 तक ग्रामीण अधोसंरचना के 45 हज़ार काम पूरे हो चुके थे, तकरीबन 2.04 लाख काम जारी और 1.65 लाख काम शुरू करने की स्वीकृति मिल चुकी थी. सूखा प्रबंधन के 3.41 लाख काम पूरे किया जा चुके थे जबकि 8.95 लाख काम जारी थे और 5.47 लाख कामों को स्वीकृति मिल चुकी थी. भूमि विकास के 2.50 लाख काम पूरे हो चुके थे, सिंचाई के 1.39 लाख काम पूरे और 3 लाख काम जारी थे. यही नहीं देश में 3.52 लाख खेत तालाब इस योजना में बनाए जा चुके थे. खेल मैदानों, पारंपरिक जल संरचनाओं के पुनरुद्धार, पहुँच मार्ग, पेयजल, स्वच्छता, मेढ़ बंधान, खेत तालाब, वनीकरण, रेलवे संरचना, आंगनवाड़ी निर्माण, बाढ़ नियंत्रण के भी 60 लाख से ज्यादा काम पूरे हुए.
यह आंकड़े बताते हैं कि मनरेगा ने देश के आधारभूत विकास में कितनी बड़ी भूमिका निभाई है, इसलिए इस पर किया जाने वाला निवेश कोई निरर्थक नहीं है, यह देश के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई है. कोविड महामारी के दौर में तो भारत को भुखमरी के संकट से बचाने में दो योजनाओं की भूमिका को सदैव याद किया जाना चाहिए. मनरेगा तो खास है ही, नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट 2013 के तहत लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी जीवनरक्षक साबित हुई है.
इस वित्तीय वर्ष में तकरीबन 61 हजार करोड़ रुपए के बजट वाली इस योजना में से तकरीबन 48 प्रतिशत हिस्सा खर्च हो जाने के बाद अब क्या सरकार इस योजना में और पैसा डालने वाली है ? क्या प्रवासी मजदूरों के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध करवाने वाले दिनों की संख्या सौ से बढ़ाने वाली है, इस पर सोचना बहुत जरूरी होगा. रोजगार गारंटी के लिए जनसंघर्ष पीएईजी ने मनरेगा ट्रैकर के तहत हालिया जारी अपनी रिपोर्ट में यह कहा है कि पिछले चार महीनों में ही पंचायतों ने 17 प्रतिशत नरेगा की मांग पूरी नहीं रही है. यानी काम की मांग दिए गए रोजगार की तुलना में अधिक रही है, काम दिए जाने के आंकड़े सुकून देने वाले हैं, पर अभी यह पर्याप्त नहीं है. इसको निश्चित ही बढ़ाया जाना चाहिए.
मनरेगा में मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी की दरों को भी ‘वन नेशन वन मजदूरी टाइप’ कोई नारा देकर बढ़ाया जा सकता है. फिलहाल इन दरों में भारी विसंगतियां हैं, मसलन वहां की कृषि मजदूरी की दर तो ज्यादा है, लेकिन मनरेगा की मजदूरी दर कम, इसलिए मजदूर उसकी तरफ आकर्षित नहीं होते. डिजिटल भुगतान के जरिए त्वरित भुगतान सिस्टम बनाकर भी इसे आकर्षक बनाया जा सकता है, फिलहाल तो सरकार मजदूरी के भुगतान में देरी के लिए भी एक बड़ी रकम खर्च करती है, जिसे कि दूर भुगतान तंत्र को तेज बनाकर दूर किया जा सकता है.
यहां इस बात को समझने की भी जरूरत है कि केवल बड़े उद्योगों में पैसा डालने से या सरकारी कर्मचारियों को ही नए-नए वेतनमान देने से ही भारत की सकल उत्पाद दर नहीं बढ़ती है, देश के निर्माण में छोटे लोगों का हाथ भी है, उसे और मजबूत बनाया जा सकता है. मजदूरों को दिया गया पैसा भी अंतत: बाजार में ही लौटेगा, जिससे निश्चित तौर पर स्वास्थ्य संकट के साथ हम इस आर्थिक संकट को भी हरा पाने में संभव हो सकेंगे.