गिरीश चंद्र मुर्मू ने भारत के नए नियंत्रक व महालेखा परीक्षक यानी सीएजी के तौर पर शपथ ले ली है. संस्थान के 162 साल लंबे इतिहास में ये पहली बार है, जब आदिवासी समुदाय से आने वाला कोई व्यक्ति सीएजी बना है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मुर्मू को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई और इस दौरान खुद पीएम मोदी राष्ट्रपति भवन में मौजूद रहे, जिनके करीब रहकर पिछले डेढ़ दशक में आईएएस अधिकारी के तौर पर काम किया है मुर्मू ने.
गिरीश चंद्र मुर्मू ने जब गुरुवार की शाम जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर के पद से इस्तीफा दिया, तो तत्काल ये अटकल लगने लगी कि उनकी जगह अब जम्मू–कश्मीर में किसको भेजा जाएगा. लेकिन मुर्मू के बारे में किसी को संदेह नहीं था कि वो जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर का पद क्यों छोड़ रहे हैं. इस्तीफे की खबर सामने आने के साथ ही ये खबर भी फैल गई कि वो राजीव महर्षि की जगह लेने जा रहे हैं नए सीएजी के तौर पर. अमूमन मोदी राज में ऐसा होता नहीं है कि आधिकारिक घोषणा के पहले आई सूचनाएं या अटकलें सही साबित हुई हों, लेकिन मुर्मू के मामले में ये 100 फीसदी सही साबित हुआ. एक तरफ जहां मनोज सिन्हा के जम्मू-कश्मीर के नए लेफ्टिनेंट गवर्नर के तौर पर नियुक्ति की घोषणा हुई, वहीं मुर्मू को देश के नए सीएजी के तौर पर नियुक्त किए जाने की.
मुर्मू की आधिकारिक जन्म तिथि 21 नवंबर 1959 है. ऐसे में सीएजी की नियुक्ति से जुड़े नियमों के मुताबिक 65 साल का होने तक या फिर अधिकतम छह वर्ष के लिए कोई इस पद पर रह सकता है. स्वाभाविक तौर पर मुर्मू 21 नवंबर 2025 तक इस पद पर बने रहने वाले हैं. मतलब ये कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के आगे भी मुर्मू का कार्यकाल चलता रहेगा. सुप्रीम कोर्ट के जज की बराबरी वाले इस पद पर गुजरात कैडर का कोई आइएएस अधिकारी पहली बार बैठा है. उससे भी बड़ी बात ये है कि आजादी के बाद आदिवासी कल्याण और हितों की बात करने वाली तमाम राजनीतिक पार्टियों ने, जो सत्ता में रहीं, किसी ने आदिवासी समुदाय के किसी व्यक्ति को सीएजी की कुर्सी पर नहीं बिठाया, वो भी तब जबकि देश को 1947 में मिली आजादी के बाद अभी तक तेरह भारतीय इस पद पर बैठ चुके हैं. इस तरह मुर्मू चौदहवें ऐसे भारतीय हैं, जो इस पद पर बैठे हैं, लेकिन आदिवासी समुदाय से आने वाले पहले व्यक्ति, जो इस पद को संभाल रहे हैं. स्वाभाविक तौर पर इसका क्रेडिट पीएम मोदी के खाते में जाएगा.
मुर्मू ओडीशा के मयूरभंज से आते हैं. आठ भाई बहनों में सबसे बड़े. मां स्कूल शिक्षिका, तो पिता रेलवे में काम करते थे. दो साल पहले ही पिता का देहांत हुआ, मां अब भी ओडीशा में रहती हैं, जिन्हें देखने के लिए मुर्मू अक्सर जाते रहते हैं. 1985 में आईएएस बनने के पहले मुर्मू ने थोड़े समय तक भारतीय स्टेट बैंक के प्रोबेशनरी अधिकारी के तौर पर भी काम किया. उस वक्त भला किसे पता था कि एक दिन वो खुद डिपार्टमेंट ऑफ फाइनेंशियल सर्विसेज की अगुआई करेंगे, जो विभाग सभी बैंकों के परिचालन को देखता है.
मुर्मू की अपनी पढ़ाई उत्कल यूनिवर्सिटी से हुई, राजनीति शास्त्र में बीए और फिर एमए किया. राजनीति शास्त्र का ये औपचारिक ज्ञान मुर्मू के काम पिछले साल भी आया, जब वे आर्टिकल 370 की समाप्ति के बाद पूर्ण राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बने जम्मू-कश्मीर के पहले लेफ्टिनेंट गवर्नर के तौर पर नियुक्त हुए. अपने 10 महीने के कार्यकाल में मुर्मू ने राजनीतिक ज्ञान का भली-भांति इस्तेमाल किया.
दरअसल मुर्मू के बारे में देश के ज्यादातर लोगों का ध्यान तब गया, जब उन्हें जम्मू-कश्मीर का एलजी नियुक्त किया गया. उस वक्त लोगों को पता चला कि मुर्मू पर पीएम मोदी कितना भरोसा करते हैं, जो आर्टिकल 370 की समाप्ति के बाद पैदा हुई चुनौतीपूर्ण स्थिति में राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले सतपाल मलिक को हटाकर मुर्मू को वहां लेफ्टिनेंट गवर्नर के तौर पर भेजने से साफ लगा. एलजी के पद पर इस नियुक्ति के पहले या तो गुजरात या फिर दिल्ली में एक सीमित वर्ग को ही मुर्मू से मोदी की निकटता का पता था.
जहां तक गुजरात का सवाल है, वहां लोगों का मुर्मू की तरफ ध्यान तब गया, जब वो यूके की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी से एक साल का एमबीए कोर्स खत्म कर 2004 के सितंबर में गुजरात लौटे. उन्हें आते ही गुजरात सरकार के गृह विभाग में सचिव के तौर पर नियुक्त किया गया. इस पद पर मुर्मू अगले साढ़े तीन साल तक रहे. यह वो दौर था, जब 2002 के गुजरात दंगों के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर कई मामलों को दोबारा खोला गया था या फिर मुठभेड़ के कई मामलों को लेकर विवाद गहरा रहा था. मुर्मू बड़ी ही मजबूती और मेहनत के साथ गुजरात सरकार की तरफ से अदालतों में इस कानूनी लड़ाई को असरदार ढंग से लड़े. खूब मेहनत की, कभी किसी काम के लिए ना नहीं बोला, काम कितना ही मुश्किल क्यों न हो. उस दौर में केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए की सरकार बैठी थी और मोदी को घेरने का कोई भी मौका छोड़ नहीं रही थी. 2004 से 2014 के बीच दस साल के यूपीए शासन के दौरान लगातार मनमोहन सिंह की अगुआई वाली केंद्र सरकार और मोदी की अगुआई वाली गुजरात सरकार के बीच शह-मात का खेल चलता रहा था.
ऐसी परिस्थितियों में भी मुर्मू ने कभी आपा नहीं खोया. स्वभाव से शांत, सरल लेकिन स्पष्टवादी, बिना लाग लपेट के कड़वी बात कहना. समय के पाबंद, हर जगह पहले पहुंचने की आदत, हर काम समय से पहले करने की कोशिश. हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक तमाम मामलों में वकीलों को ब्रीफ करने के साथ-साथ अलग-अलग आयोगों के सामने भी गुजरात सरकार के पक्ष को मुर्मू ने मजबूती से रखा. मुर्मू जिस मेहनत और लगन के साथ इस काम को कर रहे थे, उससे मोदी काफी प्रभावित हुए. मुर्मू को लेकर उनका भरोसा बढ़ा. यही वजह रही कि अप्रैल 2008 में मोदी ने मुर्मू को अपने मुख्यमंत्री सचिवालय में एडिशनल प्रिंसिपल सेक्रेटरी के तौर पर नियुक्त किया, साथ में मुर्मू गृह विभाग में भी एडिशनल प्रिंसिपल सेक्रेटरी के तौर पर कार्य करते रहे. ध्यान रहे कि गुजरात में मुख्यमंत्री रहने के दौरान अपने पूरे साढ़े तेरह साल के कार्यकाल में मोदी ने गृह विभाग का कैबिनेट मंत्री प्रभार अपने पास ही रखा, जबकि गृह राज्य मंत्री के तौर पर अपने विश्वस्त अमित शाह को 2003 में इस विभाग में रखा.
अमित शाह ने गृह राज्य मंत्री के तौर पर 2010 में तब जाकर इस्तीफा दिया, जब सीबीआई ने उन्हें इशरत जहां मुठभेड़ मामले में चार्जशीट कर दिया. जाहिर है, इस दौरान मुर्मू मोदी के साथ ही अमित शाह के भी करीब आते गए, आखिर कानूनी लड़ाई वो इन्हीं दो नेताओं के मार्गदर्शन में गुजरात सरकार की तरफ से लड़ते रहे थे. अमित शाह के 2010 में राज्य सरकार से ही नहीं, बल्कि राज्य से भी बाहर चले जाने के बाद कानूनी मामलों में मोदी के सबसे खास सलाहकार के तौर पर मुर्मू ही रह गए थे. इस दौरान सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी के सामने खुद नरेंद्र मोदी को सीएम के तौर पर 2010 में हाजिर होना पड़ा था. जाहिर है, ये कानूनी लड़ाई मैराथन रेस की तरह थी, लेकिन मुर्मू इस दौड़ में कभी हांफे नहीं, बल्कि लगातार दौड़ते रहे, कानूनी लड़ाई का बोझ उठाते रहे.
ये संयोग ही है कि गुजरात सरकार की तरफ से सीएम मोदी के प्रतिनिधि के तौर पर करीब दस साल तक लगातार कानूनी लड़ाई का बोझ उठाने वाले मुर्मू निजी तौर पर भी बोझ उठाना पसंद करते हैं. इसका सबूत हैं उनकी हृष्ठ-पुष्ठ भुजाएं और शरीर की मांसपेशियां. मुर्मू के बारे में कहा जाता है कि वो सब कुछ छोड़ सकते हैं, लेकिन कड़ी कसरत का अपना शौक नहीं. मुर्मू जब गांधीनगर में रहते थे, तो नियमित तौर पर गांधीनगर के जिमखाना में वेटलिफ्टिंग के लिए जाया करते थे. कई बार जूनियर अधिकारियों को इसका अहसास तब हुआ, जब पसीने से लथपथ मुर्मू अपने घर पर बुलाई बैठक के लिए उनके सामने आए, पता चला कि जिमखाना से वेटलिफ्टिंग करके आ रहे हैं.
अप्रैल 2015 में केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के तहत दिल्ली आने पर भी मुर्मू का ये शौक छूटा नहीं. शुरू में जब न्यू मोतीबाग के सरकारी फ्लैट में रहते थे, तो सुबह-सबरे उनके साथी अधिकारी उन्हें गैलरी में ही भारी-भरकम डंबल उठाए देख सकते थे. बाद में सरकारी बंगले में शिफ्ट हो जाने के बावजूद मुर्मू ने अपनी इस हॉबी को जारी रखा. अगर कोई नजदीक से देखे तो मुर्मू की फड़कती हुई भुजाएं नजर आ जाएंगी, फिटनेस का अंदाजा लग जाएगा, जिसे लगातार डंबल का भारी-भरकम बोझ उठाकर मुर्मू ने हासिल किया है, जिसे देखकर एक बार जॉन अब्राहम भी शरमा सकते हैं.
जहां तक बोझ उठाने का सवाल है, मुर्मू अपने भाई-बहनों का भी बोझ उठाते आए हैं. आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ा होने के कारण मुर्मू ने सभी की अच्छी पढ़ाई-लिखाई हो, ये सुनिश्चित किया. खुद तो उत्कल यूनिवर्सिटी से पढ़े, लेकिन उनके एक भाई शिरीष चंद्र मुर्मू जेएनयू से एमएससी की पढ़ाई करके रिजर्व बैंक में नौकरी में लगे और फिलहाल कोलकाता में रिजर्व बैंक के रीजनल डायरेक्टर और बैंक ऑफ इंडिया के बोर्ड पर आरबीआई की तरफ से नामित निदेशक हैं. मुर्मू के एक और भाई यूपीएससी करके रेलवे में उच्च पद पर हैं.
जहां तक मुर्मू के अपने परिवार का सवाल है, पत्नी स्मिता शुक्ला मुर्मू ने पीएचडी की है और सामाजिक सेवा में सक्रिय हैं. मुर्मू की बेटी रुचिका यूपीएससी की तैयारी कर रही है, तो बेटा रुहान बारहवीं का छात्र. मुर्मू जब दफ्तर का काम नहीं कर रहे होते हैं, तो परिवार के साथ समय बिताते हैं, एक्शन फिल्में देखने का शौक भी है उनको.
हालांकि मुर्मू को परिवार के लिए पिछले डेढ़ दशक में ज्यादा समय नहीं मिला. न तो सीएम से पीएम तक की यात्रा पिछले दो दशक की यात्रा मोदी ने खुद कोई अवकाश लिया है और न ही उनके करीब रहकर काम करने वाले मातहत अधिकारी. मुर्मू के साथ भी ऐसा ही रहा. 2004 से लेकर 2014 तक लगातार उन्होंने मोदी के मातहत अधिकारी के तौर पर काम किया. काम का दबाव काफी अधिक रहा, गांधीनगर से दिल्ली की दौड़ हर महीने लगाते रहे. कई बार तो हफ्ते भर में ही दिल्ली का चक्कर लग जाता था. मई 2014 में जब गुजरात के मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़कर मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो मुर्मू उनके बाद मुख्यमंत्री बनने वाली आनंदीबेन पटेल के प्रिंसिपल सेक्रेटरी के तौर पर साल भर तक काम करते रहे और फिर अप्रैल 2015 में दिल्ली की राह पकड़ी. मुर्मू सेंट्रल डेपुटेशन पर पहली बार तभी आए, जब मोदी पीएम बनकर साल भर पहले 2014 में दिल्ली आ चुके थे.
अक्टूबर 2019 में जम्मू-कश्मीर का लेफ्टिनेंट गवर्नर नियुक्त किए जाने से पहले करीब साढ़े चार साल तक मुर्मू वित्त मंत्रालय के अंदर ही अलग-अलग भूमिका निभाते रहे. 20 अप्रैल 2015 को वित्त मंत्रालय के अंदर ज्वाइंट सेक्रेटरी के तौर पर काम शुरु करने वाले मुर्मू ने 29 अक्टूबर 2019 को डिपार्टमेंट ऑफ एक्सपेंडिचर के सेक्रेटरी का पदभार तब छोड़ा, जब उन्हें जम्मू-कश्मीर का लेफ्टिनेंट गवर्नर बना दिया गया इस दौरान उन्होंने व्यय, बैंकिंग और राजस्व जैसे सभी महत्वपूर्ण विभागों में काम किया, जो अनुभव अब देश के चौदहवें सीएजी के तौर पर उनके काम आने वाला है.
मुर्मू को कड़ा होमवर्क करने की आदत है. गुजरात में जब वो मुख्यमंत्री सचिवालय के साथ ही गृह विभाग का काम भी देखते थे, तो हर फाइल को ध्यान से पढ़ना उनकी आदत थी. चाहे वो पुलिस अधिकारियों के तबादले या प्रमोशन से जुड़े मामले हों, या हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चलने वाले मामले. मुर्मू हर विषय में गहराई से उतरा करते थे. यहां तक कि वरिष्ठ नौकरशाह होने के बावजूद वो खुद बड़े वकीलों के यहां महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा करने के लिए जाते थे.
मोदी के मित्र और बीजेपी के वरिष्ठ नेता रहे अरुण जेटली के पास मुर्मू अक्सर आते थे तुषार मेहता के साथ, जो उस वक्त गुजरात में एडिशनल एडवोकेट जनरल थे और फिलहाल देश के सॉलिसिटर जनरल. जो बड़े वकील उस समय गुजरात सरकार का केस लड़ते थे या फिर सलाह देते थे, उसमें हरीश साल्वे से लेकर मुकुल रोहतगी और सुशील कुमार से लेकर रंजीत कुमार तक शामिल थे. कई बार इन वकीलों के चेंबर के बाहर मुर्मू को लंबा इंतजार भी करना पड़ जाता था, लेकिन मुर्मू ने कभी उसका बुरा नहीं माना अन्यथा सामान्य तौर पर कोई भी वरिष्ठ आईएएस अधिकारी झल्ला जाए. हां, एक वकील को माफ नहीं किया, जो इंतजार कराना तो ठीक, टेबल पर बिना मोटी फीस रखवाये केस पर बात करने के लिए तैयार नहीं होता था. शायद मुर्मू का वो फीडबैक ही रहा, जो मोदी सरकार के केंद्र में आने के बाद तमाम संबंधित वकीलों को बड़े पद और सम्मान मिले, सिर्फ उस एक वकील को छोड़कर. आज वो वकील उन दिनों को कोस रहा होगा, जब फटाफट फीस जेब में रख लेने के लालच को वो दबा नहीं पाया.
मुर्मू ने खुद कभी लालच नहीं दिखाया. जब मोदी मई 2014 में दिल्ली पीएम के तौर पर आ गए, तो सबको लग रहा था कि मुर्मू भी लगे हाथों दिल्ली आ जाएंगे, लेकिन उन्हें दिल्ली आने में अगले 11 महीने लग गए. आए भी तो अटकलें लगती रहीं कि उन्हें प्रवर्तन निदेशालय का प्रमुख बना दिया जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वित्त मंत्रालय में लो प्रोफाइल रखते हुए मुर्मू चुपचाप अपना काम करते रहे और आखिरकार जब अक्टूबर 2019 के आखिरी दिनों में मुर्मू को केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर जम्मू-कश्मीर का पहला लेफ्टिनेंट गवर्नर बनाने की घोषणा हुई, तो बड़े-बड़े नेताओं और नौकरशाहों को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ कि वो सही सुन रहे हैं. मुर्मू 60 साल की उम्र में रिटायरमेंट के पहले ही इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठ जाएंगे, किसी ने सोचा भी नहीं था. सामान्य नौकरशाह से महामहिम बन जाना इतना आसान नहीं होता और वो भी जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील प्रदेश का.
एक साल के अंदर ही मुर्मू को एक और महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त करके पीएम मोदी ने सबको चौंका दिया है. हालांकि पीएम मोदी को करीब से जानने वाले लोगों के लिए इसमें चौंकने जैसा कुछ भी नहीं है. मोदी निष्ठा और मेहनत की कद्र करते हैं, जो लोग उनके साथ चुनौतीपूर्ण दिनों में जुड़े रहे हैं, वे उनका ख्याल रखना जानते हैं. मुर्मू ने जिस तरह लगन और परिश्रम के साथ मोदी के मातहत अधिकारी के तौर पर डेढ़ दशक में उनका भरोसा जीता, उसमें सीएजी के पद पर मुर्मू का बैठना स्वाभाविक ही है. देश, सियासत और नौकरशाही के लिए भी संदेश कि अगर आप अपना काम लगन और मेहनत के साथ करें, तो आपकी सामाजिक पृष्ठभूमि आड़े नहीं आ सकती. खुद मोदी के मामले में ये आड़े नहीं आई है, न ही रामनाथ कोविंद के मामले में, जिन्होंने देश के पहले दलित राष्ट्रपति के तौर पर देश के पहले आदिवासी सीएजी के रुप में मुर्मू को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई है.
हिंदू जीवन दर्शन में प्रारब्ध की बात कही गई है यानी आपके साथ क्या होगा ये निश्चित है. लेकिन मोदी ने प्रारब्ध को अपने कर्म के साथ बदला है और उनके विश्वस्त मातहत मुर्मू ने भी. दोनों ज्योतिष में यकीन करते हैं, नियमित पूजा पाठ करते हैं, लेकिन अपने लिए राह खुद बनाते हैं. यही वजह है कि ओडीशा के मयूरभंज में पले-बढ़े मुर्मू, जिन्होंने 1985 में यूपीएससी क्लियर करने के बाद गुजरात के पेटलाद से बतौर एसडीएम सितंबर 1987 में अपने प्रशासनिक कैरियर की शुरुआत की, वो अब देश के महत्वपूर्ण संवैधानिक पद सीएजी की कुर्सी पर बैठने जा रहे हैं. भला जामनगर के जगत रावल ने ये कहां सोचा होगा कि बतौर कलेक्टर 1997 से 2000 में उनके शहर में रहने वाले मुर्मू, जिनकी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर स्थानीय अखबार के लिए निकालने में उन्हें पसीने छूट जाते थे, वो डेढ़ दशक बाद लगातार कैमरों की जद में होंगे. भला मैंने भी ये कहां सोचा था जब 2000 की गर्मियों में जामनगर के जोड़िया इलाके में सूखे के दौरान राहत कार्य चलाने वाले कलेक्टर के तौर पर, बिना एसी वाली सूमो गाड़ी से उतरते हुए, पसीने से तरबतर मुर्मू का भरी दोपहरी सड़क के किनारे टीवी के लिए इंटरव्यू किया था