जिस रेडिएशन के कारण सेहतमंद इंसान भी दिनों या हफ्तों में मौत के मुंह में समा जाता है, एक छोटा-सा समुद्री जीव उस रेडिएशन का हजार गुना सहने के बाद भी ठीक रहता है. इस जीव को वॉटर बीयर (Water Bear) या टार्डिग्रेड्स (Tardigrade) भी कहते हैं. टार्डिग्रेड्स इतने मजबूत होते हैं कि अंतरिक्ष की जानलेवा रेडिएशन भी इनपर बेअसर होती है. अब इस जीव का इस्तेमाल मेडिकल साइंस में किया जा सकता है.
आठ पैरों वाला टार्डिग्रेड पानी में पाया जाने वाली जीव है, जो इतना छोटा है कि माइक्रोस्कोप से ही ठीक तरह से देखा जा सकता है. वयस्क अवस्था में ये 1.5 मिलीमीटर लंबा होता है, जबकि सबसे छोटा जीव 0.1 मिलीमीटर लंबा होता है. साल
1773 में अपने आकार के कारण ही ये लिटिल वॉटर बीयर कहलाया. तीन ही सालों के भीतर इसका नया नामकरण हुआ- टार्डिग्रेड यानी धीरे-धीरे कदम रखने वाला
इसके बाद तो टार्डिग्रेड हर कहीं दिखने लगा, गहरे समुद्र से लेकर पहाड़ों की चोटियों पर और यहां तक कि ज्वालामुखी के पास भी. जी हां, आग उगलने वाली जगह पर भी इन बेहद छोटे जीवों की मौजूदगी का खास कारण है. ये 300 डिग्री से भी ज्यादा तापमान पर रह पाता है. वैसे ये एकदम विपरीत हालातों में भी दिखता है, जैसे नदी या समुद्र के भीतर काई में.
हालांकि वैज्ञानिकों को जो बात सबसे ज्यादा चौंका रही है, वो है टार्डिग्रेड की रेडिएशन को सह पाने की क्षमता. एक तरफ इंसान और दूसरे जीव-जंतु गामा किरणों के हल्के प्रहार को ही सह नहीं सकते हैं, वहीं इस जीव में मनुष्यों से 1000 गुना ज्यादा रेडिएशन सह पाने की क्षमता होती है.
ये अंतरिक्ष के वैक्यूम, जहां हवा न होने और कॉस्मिक किरणों के कारण कोई भी जिंदा नहीं रह पाता, वहां भी सर्वाइव कर जाते हैं. ये बात European Space Agency के प्रयोग में निकलकर आई. इससे इस अनुमान को भी बल मिला है कि अंतरिक्ष में कहीं न कहीं जीवन होगा.
यही वजह है कि दुनिया के सबसे कठोर जीव माने जाने वाले टार्डिग्रेड को अब मेडिकल साइंस में भी आजमाने की बात हो रही है. हो सकता है कि इसकी मदद से अस्पतालों में रेडिएशन का असर कम हो सके या फिर रेडिएशन की ही मदद से कोई नई खोज की जा सके
वैसे टार्डिग्रेड के बारे में ये खोज भारत की ही देन है. यहां इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड को एक्सट्रीम हालातों में रखकर उसके असर को समझने की कोशिश की. इसी दौरान ये जानकारी निकलकर आई कि ये रेडिएशन और हीट भी सह जाते हैं. ये स्टडी ऑनलाइन साइंस जर्नल साइंस मैग में प्रकाशित हुई.
असल में इंस्टीट्यूट के लैब में एक जर्मिसाइडल यूवी लैंप था. टार्डिग्रेड को इस लैंप के संपर्क में लाया गया. यूवी किरणों के संपर्क में लगातार रहने के बाद भी ये जीव अपना जीवन पूरा करके खत्म हुए. माना जा रहा है कि इनके शरीर पर पाई जाने वाली शील्ड की बनावट ऐसी होती है, जो उन्हें रेडिएशन के असर से बचाती है. शील्ड में मिलने वाली जीन को पैरामैक्रोबियोटस नाम दिया गया. ये असल में एक सुरक्षात्मक फ्लोरोसेंट ढाल है, जो अल्ट्रा वायलेट रेडिएशन को भीतर सोखकर उसे हानिरहित नीली रोशनी में बदल देता है. शोधकर्ताओं की मानें तो इस जीव के ‘पैरामैक्रोबियोटस’ को निकालकर अन्य जीवों में भी ट्रांसफर किया जा सकता है ताकि वे रेडिएशन के असर से बचे रहें.