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कांशीराम ने कैसे खड़ा किया सबसे बड़ा बहुजन आंदोलन, बामसेफ, डीएस-4 और बसपा बनने की ये है कहानी

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पंजाब के रोपड़ जिला (रूपनगर) के रहने वाले कांशीराम (Kanshi Ram) पुणे की गोला बारूद फैक्ट्री में क्लास वन अधिकारी के रूप में तैनात थे. यहीं पर जयपुर, राजस्थान के रहने वाले दीनाभाना चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में काम कर रहे थे. वो वहां की एससी, एसटी वेलफेयर एसोसिएशन से जुड़े हुए थे. आंबेडकर जयंती पर छुट्टी को लेकर दीनाभाना का अपने सीनियर से विवाद हो गया. बदले में उन्हें सस्पेंड कर दिया गया. उनका साथ देने आए महाराष्ट्र के डीके खापर्डे का भी यही हश्न हुआ. वे महार जाति से थे. जब कांशीराम को इसके बारे में पता चला तो उन्होंने कहा, ‘बाबा साहब आंबेडकर की जयंती पर छुट्टी न देने वाले की जब तक छुट्टी न कर दूं, तब तक चैन से नहीं बैठ सकता.’

कांशीराम वंचितों की लड़ाई में उतर गए. उन्हें भी सस्पेंड कर दिया गया. फिर उन्होंने उस अधिकारी की पिटाई की, जिसने उन्हें निलंबित किया था. यह वो घटना है जिसने दलित कर्मचारियों और अधिकारियों के हक के लिए काम करने वाले सबसे बड़े संगठन बामसेफ (BAMCEF-Backward And Minority Communities Employees Federation) को जन्म दिया. बाद में डीएस-4 और बसपा की स्थापना हुई. पिछले दिनों हमसे खास बातचीत में यह कहानी बामसेफ के अध्यक्ष वामन मेश्राम ने बताई थी.

बामसेफ के तीन संस्थापक

कांशीराम के दौर तक इस संगठन ने बसपा (BSP) के लिए वैसा ही काम किया जैसा भाजपा के लिए आरएसएस करता है. वामन मेश्राम बताते हैं, “दीनाभाना बहाल हुए. उनका ट्रांसफर दिल्ली कर दिया गया. कांशीराम ने सोचा कि जब हमारे जैसे अधिकारियों पर अन्याय होता है तो देश के और दलितों, पिछड़ों पर कितना होता होगा. इसलिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी और बामसेफ बनाया.” इसके तीन संस्थापक थे दीनाभाना, डीके खापर्डे और कांशीराम.

मेश्राम के मुताबिक, “कांशीराम तीसरे नंबर पर होकर भी पहले नंबर पर इसलिए आए, क्योंकि उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी. उनके पास समय ही समय था. वे उस एससी, एसटी वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष बना दिए गए, जिससे दीनाभाना जुड़े हुए थे. फिर उन्हें समझ में आया कि केवल एससी, एसटी के लिए काम करने से बात नहीं बनेगी. परिवर्तन के लिए एससी, एसटी, ओबीसी और इनसे कन्वर्टेट अल्पसंख्यकों को भी जोड़ना होगा.”

बामसेफ की कल्पना में भरा गया रंग

6 दिसंबर 1973 को ऐसा एक संगठन बनाने की कल्पना की गई. फिर 6 दिसंबर 1978 को राष्ट्रपति भवन के सामने बोट क्लब मैदान पर इसकी औपचारिक स्थापना हुई. कन्वेंशन का नाम था ‘बर्थ ऑफ बामसेफ’. बामसेफ के बैनर तले कांशीराम और उनके साथियों ने दलितों पर अत्याचारों का विरोध किया.

कांशीराम ने दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में दलित कर्मचारियों का मजबूत संगठन बनाया. समझाया कि अगर उन्हें अपना उत्थान करना है तो मनुवादी सामाजिक व्यवस्था को तोड़ना जरूरी है.

मेश्राम बताते हैं, “कई अधिकारी और कर्मचारी इस संगठन को चलाने के लिए अपनी तनख्वाह का अधिकांश हिस्सा दे देते थे. देश में इस वक्त 31 राज्यों के 542 जिलों में करीब 25 लाख लोग संगठन से जुड़े हए हैं. इसके 57 अनुशांगिक संगठन हैं. जिसमें कई प्रोफेशन के लोग हैं. राष्ट्रीय मूल निवासी बहुजन कर्मचारी संघ नाम से इसका ट्रेड यूनियन संगठन है, जो एससी, एसटी, ओबीसी एवं माइनॉरिटी कर्मचारियों के हितों को सुरक्षित रखने का काम करता है.”

कैसे और क्यों बना डीएस-4?

बामसेफ के जरिए कर्मचारियों और अधिकारियों को गोलबंद करने काम जारी था. इसके साथ-साथ सामान्य बहुजनों को संगठित करने के लिए कांशीराम ने 1981 में डीएस-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) की स्थापना की. इसका नारा था ‘ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4’. यह राजनीतिक मंच नहीं था, लेकिन इसके जरिए कांशीराम न सिर्फ दलितों बल्कि अल्पसंख्यकों के बीच भी एक तरह की गोलबंदी कर रहे थे. डीएस-4 के तहत ही उन्होंने जनसंपर्क अभियान चलाया. साइकिल मार्च निकाला, जिसने सात राज्यों में लगभग 3,000 किलोमीटर की यात्रा की. अगड़ी जाति के खिलाफ नारों के जरिए वे दलितों, पिछड़ों को जोड़ते रहे.

कैसे बनाई गई बसपा?

कांशीराम यहीं रुकने वाले नहीं थे. साल 1984 में कांशीराम ने फैसला लिया कि ‘राजनीतिक सत्ता ऐसी चाभी है जिससे सभी ताले खोले जा सकते हैं’. बामसेफ के कई संस्थापक सदस्य कांशीराम के चुने इस नए रास्ते से अलग हो गए. हालांकि उनके साथ जुड़े रहने वाले बामसेफ कार्यकर्ता भी कम नहीं थे. बामसेफ के दूसरे संस्थापक सदस्य डीके खापर्डे ने इसकी कमान संभाली और यह आंदोलन जारी रहा.